Anilaamil
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खुशरंग परिंदे तेरे पर की क़िताब में;
कितने ही आसमान हैं बाकी हिसाब में।
करता भी क्या मैं हुस्नतर ज़ालिम के सितम पर,
एक दाग़ बेश ढूंढ लिया माहताब में।
यूं ही न बेख़ुदी में वो करता रहा दीदार,
टूक उंस भी नुमाया होगा इताब में।
मेरी मैकशी पे शेखों में जंग छिड़ गई;
आबे-वज़ू मिला क्या मेरी शराब में।
ये होश के थपेड़े बदज़ात, बदहवास;
अरमान के दरीचे खुलते हैं ख्वाब में।
अनिल ‘आमिल’
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